Saturday, 12 May 2012

तुम अंत तक रहना मेरे साथ

इस समय भोर के तीन बज रहे हैं,
या कि फिर रात के तीन.
( यह तय करने की ज़िम्मेवारी मैं आप पर छोड़ता हूँ.)
अपनी खुली छत पर वह बूढ़ा आदमी,
कभी टहल रहा होता है,
कभी कुछ गा रहा होता है,
कभी बड़बड़ा रहा होता है.
उसके बारे में मुझे बस इतना ही पता है कि-
समय ने उसकी त्वचा पर जो आरी-तिरछी रेखाए उकेरी हैं,
वह यह प्रमाणित करती है कि,
अस्सी के कुछ उपर की ही वय होगी उसकी,
और महीने भर पहले,
उसने अपने पोते-पोतियों के साथ .
लत्तेदार सब्जियों का जी बीज बोया था,
उसकी बेलें उसकी छत तक चढ़ आईं हैं.
और ढेरों नीले-पीले फूल इसमें खिल आए हैं.
और कि, वह कुछ अकेला सा हो गया है,
पिछले बरस से-
जब से उसने अपनी जीवन-संगिनी को आख़िरी विदाई दी है.
बिस्तर पर लेटे-लेटे मेरी निगाहें बच्चों के कमरे तक जाती हैं,
मैं वर्तमान से भविष्य की लंबी कूद लगाता हूँ.
मस्तिष्क में बहुतेरे चित्र बनते हैं, बिगड़ते हैं.
मेरी नींद मुझसे दूर भाग खड़ी होती है.
मैं अपनी संगिनी के मुखकमल को निहारता हूँ,
जो सुखभरी नींद में डूबा हुआ होता है.
मैं उसकी हथेली पर धीमे से अपनी हथेली रखता हूँ और,
उसके माथे पर एक वायवीय चुंबन धरता हूँ,
बुदबुदाता हूँ-
तुम अंत तक रहना मेरे 

और फिर प्रार्थना में खुद ब खुद जुड़ जाती हैं हथेलियाँ
और मूंद जाती है आँखें.



ब्रजेश
12/05/2012

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