Friday 26 October 2012

खिचड़ी, गर्म-गर्म खिचड़ी. मेरी चेतना की थाली में परोसी हुई, उच्छवासें छोड़ रही हैं. प्यारी खिचड़ी , मैं करबद्ध, नतमस्तक तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ. मैं हतप्रभ हूँ की तुम्हारी सादगी ने भला अब तक मेरे मन को क्यों नहीं लुभाया. जबकि, हर सादगी ने मेरे मन को तरंगित किया है. 'शनि' का भय भी मुझे तुम्हारे करीब नहीं ला पाया. क्यों समझता रहा तुझे, रुग्ण लोगों का पथ्य और सज़ायाफ्ता कैदियों की मजबूरी. मैं अकिंचन
 बेमन से ग्रहण करता रहा तुम्हे, अपनी संगिनी की साप्ताहिक छुट्टी के एवज में, एक विवशता भरे विकल्प के रूप में. प्यारी खिचड़ी, तुम्हारा स्वाद / सौंदर्य उद्‍घाटित नहीं हो पाता, यदि पिछले शनिवार को प्रसाद साहब मेरे दफ़्तर नहीं आते. प्रसाद साहब ? मेरी ही कद-काठी के हैं, थोड़े साँवले से और शालीन पुरुषों की उस प्रजाति से हैं, जिनके अवशेष अभी भी यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं.प्रसाद साहब कोई पाँच वर्ष पहले मेरे दफ़्तर से सेवानिवृत हुए हैं. और अब अपने बड़े से घर में अकेले रहते हैं. उनकी सहचरी ने अभी हाल में ही उन्हें आख़िरी बार अलविदा कह दिया. प्रसाद साहब के सारे बच्चे होनहार हैं, और यही वजह है कि वे अपने पिता के बड़े से घर की शोभा नहीं बढ़ाते. प्रसाद साहब बच्चों के साथ रहने को तैयार नहीं हैं. उनकी चिंता है कि वे अगर अपना शहर छोड़ देंगें तो इस विशाल घर का क्या होगा. मैं हंसता हूँ. प्यारी खिचड़ी, कबीर भी हंसते थे. माया महा ठगिनी हम जानी.प्यारी खिचड़ी, मेरे बड़े लाड़ले ने ताबड़तोड़ मेरे मोबाइल पर संदेशों की झड़ी लगा दी. पापा, मम्मी ने खिचड़ी पका लिया है. जल्दी आकर भोग लगाइए. जैसे खिचड़ी , खिचड़ी ना हो, छप्पनभोग हो. मैं चिढ़ रहा था, थोड़ा उसके उतावलेपन पर और ज़्यादा तुम्हारे नामोच्चार से. प्यारी खिचड़ी, मैने जिंदगी में आख़िरी बार तुम्हारे नाम से नाक-भौं सिकोडी. मैने अपने पुत्र - रत्न को थोड़ा सा धैर्य धारण करने को कहा. इस बीच मैने पूरे आदर- भाव से अपने वरिष्ठ प्रसाद साहब से चाय-पान का आग्रह किया. प्रसाद साहब ने पूरी आत्मीयता के साथ मेरे कंधे पर अपनी हथेलियों को रखा, तनिक दबाब डालते हुए. संबंधों की उष्मा मेरे आत्मा तक पहुँच रही थी.'आज छोड़िए, अगले दिन....' प्रसाद साहब ने कहा. फिर कुछ याद दिलाते हुए कहा- आपको तो पता ही होगा,घर पर अकेला रहता हूँ, आज शनिवार है, जाकर खिचड़ी बनानी पड़ेगी, तभी तो खा पाऊँगा. प्यारी खिचड़ी, मेरे जिस कंधे पर प्रसाद साहब ने अपनी हथेली को रखा था, उससे जुड़ा हाथ सुन्न हो गया. प्यारी खिचड़ी, उस क्षण के सत्य के साक्षात्कार से तुम्हारे प्रति मेरी सोच सदा-सर्वदा के लिए बदल गई. मैने तत्क्षण अपनी भार्या को संदेश भेजा- मेरी खिचड़ी की थाली तैयार की जाय. बाबूजी की याद आई, माँ की भी. बाबूजी माँ से कहते थे- खिचड़ी के चार यार, घी पापड़, दही, अचार. खाने की टेबल पर तुम अपने सारे सांगियों के साथ मौजूद थी. प्यारी खिचड़ी, अब तो तुम मेरे मन के एक कोने से दूसरे कोने तक बिछी हुई हो. अपने रसीले विस्तार से लगातार भरमाते हुए.....

ब्रजेश
मतलब-बेमतलब. यह द्वंद्ध है मेरे मन में. पिघले हुए उष्ण लोहे सा यह बह रहा है मेरे अन्तस्तल पर. इस द्वंद्ध को आपसे साझा कर शायद कोई निकास का मार्ग प्रशस्त हो. उफ़..,यह आतप्त पिघलता लोहा........ मेरे कर्ण द्वय यह सुन-सुन कर पक चुके हैं की यह दुनिया मतलब की है. मेरा एक अज़ीज दोस्त, जो पुलिस महकमे में एक बड़ा अधिकारी है, गाहे-बगाहे तर्कों-कु-तर्कों के बोझ तले मुझे दबा देता है. मैं कराहता हूँ-हाँ,भई 
हाँ, यह दुनिया सिर्फ़ मतलब की ही है. फिर देह झाड़-पोछ कर खड़ा होता हूँ और मिमियाता हूँ- ना भई ना, संपूर्ण जीव-जगत, चर- अचर में कुछ तो है जो 'बे'मतलब है. कुल मिलाकर मतलब दहाड़ता है और बेमतलब मिमियाता है.
इस पूरे सन्दर्भ में मतलब के मतलब को समझा जाना ज़रूरी है.यह मतलब अर्थ (Meaning) वाला नहीं है, बल्कि स्व-हित अथवा स्व-अर्थ से ताल्लुक वाला है. सोचता हूँ, यदि सारा कुछ मतलब से चालित हो, तो संबंधों की बुनियाद भला मजबूत हो सकता है क्या? माँ-बाप का प्रेम और स्नेह उनके किसी मतलब की सिद्धि का साधन होता है क्या ? कैशोर्य का पहला-पहला प्यार, बिना मिलावट का विशुद्ध प्रेम, किसी मतलब का मोहताज होता है क्या? कॉलेज के प्रांगण में घंटों बैठकर यार-दोस्तों से बेमतलब की बातों का क्या मतलब होता है भला? मतलब के रिश्तों में हितों के सधने पर खुशी होती है. बेमतलब के रिश्ते अपने आप में ही खुशी की गारंटी होते हैं. मतलब अपने क्षुद्र घेरे में इंसान को बाँध कर रखता है. बेमतलब उसे आज़ादी देता है , अपने से उबरकर औरों तक पहुँचने की. विमान की परिचारिकाओं की कृत्रिम मुस्कुराहट मतलब है तो किसी शिशु की बेलौस किलकारी बेमतलब. मतलब अपने पीछे दौड़ाते-भगाते , ह्फ़ँते रहता है तो बेमतलब चित्त को प्रशांत करता है. मतलब कृपण है, तो बेमतलब उदात्त. मतलब याचक है तो बेमतलब दाता. मतलब उद्विग्नता है तो बेमतलब विश्रान्ति. मतलब व्याधि है तो बेमतलब औषधि.
मतलब से मतलब रखा जाना एक हद तक ज़रूरी है, पर, बेमतलब से मतलब रखना और भी ज़्यादा ज़रूरी है. यह बेमतलब अवसाद और यंत्रणा के क्षणों में दर्द निवारक मरहम जैसा है. आप जिंदगी के किसी मोड़ पर निम्नतम स्तर पर हों और निढाल पड़े हों, तो यह बेमतलब आपके बदन को सहलाता है, राहत पहुँचाता है और आहिस्ते से , सुकून भरी नींद के दरवाजे पर पहुँचाता है.
सूरज जब थक चुका होता है,
दिखाकर अपना सारा जादू-
और,किरणों के जाल की पोटली बाँध,
अपने कंधों पर लेता है टांग.
फिर,हाथें हिलाता,
वापस लौटने के लिए हो जाता है अधीर.
मेरे छोटे-से शहर की छतों पर,
उग आते हैं लोग.
और हवाओं में तैरने लगती हैं-
ढेर सारी उम्मीदें,ख्वाहिशें और कनफ़ुसियां.

मेरी आँखें जा टिकती हैं-
एक जर्जर इमारत पर.
जिसकी छत पर सजती हैं रोजाना,
शून्य में निहारती एक जोड़ी आँखें.
इमारत का दरवाज़ा अक्सर खामोश रहता है.
उसे पता है बहुत ही कम आगंतुक हैं इस घर में.
घर के मालिक ने कुछ अरसे पहले अपनी इहलीला पूरी कर ली है.
और कहीं गुम हो गया है सितारों के बीच.
जिसे ढूढ़ने का प्रयत्न करती हैं रोजाना,
शून्य में निहारती आँखें.
घर के चिरागों ने रोशन कर रखा है नई-नई इमारतों को,
नई-नई जगहों पर.
मैं अपने घर की छत से उतरता हूँ,
सीढ़ियों पर सधे हुए कदमों के साथ ,
और अपने घर को हसरत से देखता हूँ,
आईने में खुद को परखता हूँ,
फिर अपनी नज़रों को नज़र-भर देखता हूँ.

ब्रजेश
27/08/2012

जब भी घर से बाहर निकलता हूँ



जब भी घर से बाहर निकलता हूँ,
घर की एक मुठ्ठी हवा साथ ले लेता हूँ.
कौन जाने बाहर की हवा का मिज़ाज कब बदल जाए?
कितना सुकून महसूस होता है!
जो संग घर की हवा रहती है.
इस हवा में घुली है-
माँ के बनाए पराठो की गंध,
छोटे- भाई बहनों की हँसी,
पिताजी के उपदेश,
जो कभी-कभी कितने बोर करने वाले होते हैं?
पर!
किसी अपरिचित, अजनबी जगह में,
कितना महत्वपूर्ण होता है वो गंध, हँसी?
और, पिताजी के उपदेश.
मुझसे पूछो?
इसीलिए तो एक मुठ्ठी हवा साथ ले लेता हूँ,
जब भी घर से बाहर निकलता हूँ.

ब्रजेश

Friday 13 July 2012

अर्थवत्ता

मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम कि-
क्या शब्द समय के साथ अपनी अर्थवत्ता खोते चले जाते हैं?
या फिर ,समय के साथ
कुछ शब्द हमारे लिए बेगाने होते चले जाते हैं.
या फिर समय,
कुछ शब्दों को सौंप देता है आनेवाली नई नस्ल को.
एक खास मकसद से.

ब्रजेश
१०/०५/२०१२

उधेड़बुन

बहुत सारी कहावतें, मुहावरे,सूक्तियाँ और सुभाषित वाणीयाँ कही जाती हैं-
जब भी कदम डगमगाते हैं,
जिंदगी के आड़े-तिरछे रास्ते नापते हुए.
मैं उधेड़बुन में पड़ जाता हूँ-
क्या इन कहावतों-मुहावरों, सुक्तियों-सुभाषित वाणीयों का,
एक समुच्चय बनाऊँ,
और, इन्हें LHS की ओर रखूं,
और, फिर अपनी जिंदगी को RHS की ओर.
और, तमाम उम्र LHS-RHS को साधता रहूँ....
फिर इसी कशमकश में जिंदगी के रास्ते ही ख़त्म हो जायें !
या यूँ ही चलता रहूँ,
चलने का उत्सव मनाते हुए,
यात्रा में मिलने वाले-
चोटों को सहलाते हुए,
ज़ख़्मों की पीड़ा बिसराते हुए.
(थकने जैसी तो कोई बात ही नहीं है.)
बस , चलता रहूं...
दीवानावार.

ब्रजेश
22/02/2012

मैं आदतन मुस्कुराता रहता हूँ.

मैं आदतन मुस्कुराता रहता हूँ.
दिल के दाग छिपाता रहता हूँ.
परन्तु, अक्सर मेरी चोरी पकड़ी जाती है.
मेरे माथे पर कुछ ,
अनलिखी इबारत उभर आती है.
जिसे पढ़ने में कोई चूक नहीं करते मेरे बच्चे
और मेरी अर्धांगिनी.
मुझे इसका अहसास तब होता है,
जब,
मेरा बेटा मेरी बिखरी चीज़ों को सहेजता है,
दफ़्तर के लिए निकलने से पहले.
बार-बार पूछता है-
पापा, तुम कब तक लौतोगे?
बेटी बिना कुछ बोले,
मेरी पीठ पर चढ़कर,
मेरे गालों को चूमती है.
और,
मेरी धर्मपत्नी,
मेरी महिला मित्रों को लेकर ताने मारना,
एकदम से बंद कर देती है.

ब्रजेश
22/02/2012

रंग...

रंग...
रंग उन्माद के,
रंग...
रंग दहशत के,
रंग...
रंग अविश्वास के,
अलग अलग रंगों से सराबोर लोग,
अलग-अलग रंगों के झंडे ढो रहे लोग,
उबलते हुए रंग,
रंग
हरा रंग, नीला रंग, लाल रंग, गहरा लाल रंग, केसरिया रंग...
हर किसी ने एक रंग का अपने लिए वरण कर लिया है..
मुझे नहीं रंगना एकाकी रंग से...
मैं इंद्रधनुष के सपने देखता हूँ...
सारे रंग अपने पूरे अस्तित्व के साथ
साथ खड़े..
एक-दूसरे की गलबाहियाँ करते.

ब्रजेश
29/05/2012

Saturday 12 May 2012

तुम अंत तक रहना मेरे साथ

इस समय भोर के तीन बज रहे हैं,
या कि फिर रात के तीन.
( यह तय करने की ज़िम्मेवारी मैं आप पर छोड़ता हूँ.)
अपनी खुली छत पर वह बूढ़ा आदमी,
कभी टहल रहा होता है,
कभी कुछ गा रहा होता है,
कभी बड़बड़ा रहा होता है.
उसके बारे में मुझे बस इतना ही पता है कि-
समय ने उसकी त्वचा पर जो आरी-तिरछी रेखाए उकेरी हैं,
वह यह प्रमाणित करती है कि,
अस्सी के कुछ उपर की ही वय होगी उसकी,
और महीने भर पहले,
उसने अपने पोते-पोतियों के साथ .
लत्तेदार सब्जियों का जी बीज बोया था,
उसकी बेलें उसकी छत तक चढ़ आईं हैं.
और ढेरों नीले-पीले फूल इसमें खिल आए हैं.
और कि, वह कुछ अकेला सा हो गया है,
पिछले बरस से-
जब से उसने अपनी जीवन-संगिनी को आख़िरी विदाई दी है.
बिस्तर पर लेटे-लेटे मेरी निगाहें बच्चों के कमरे तक जाती हैं,
मैं वर्तमान से भविष्य की लंबी कूद लगाता हूँ.
मस्तिष्क में बहुतेरे चित्र बनते हैं, बिगड़ते हैं.
मेरी नींद मुझसे दूर भाग खड़ी होती है.
मैं अपनी संगिनी के मुखकमल को निहारता हूँ,
जो सुखभरी नींद में डूबा हुआ होता है.
मैं उसकी हथेली पर धीमे से अपनी हथेली रखता हूँ और,
उसके माथे पर एक वायवीय चुंबन धरता हूँ,
बुदबुदाता हूँ-
तुम अंत तक रहना मेरे 

और फिर प्रार्थना में खुद ब खुद जुड़ जाती हैं हथेलियाँ
और मूंद जाती है आँखें.



ब्रजेश
12/05/2012

Saturday 5 May 2012

मंतरिया


            
                                                                        मंतरिया


                      इतना आसान नहीं है जैतपुर जाना. भागलपुर से गोड्डा जाने वाली मुख्य सड़क से उतरो फिर दक्षिण की ओर पाँच कोस पैदल चलो, पगडंडीयों पर, खेतों की मेडों पर. आड़े-तिरछे ..अपने शरीर का संतुलन साधते हुए.  रस्सी पर चलते किसी नट की तरह. और, हाँ..जूते-चप्पल पैरों में नहीं , हाथों में होने चाहिए. फिर. नागिन सी लहराती -बल खाती पहाड़ी नदी में उतरो. बारिश का मौसम हो तो ताड़ के पेड़ों से बने हुए दो फुट चौड़े पुल को पार करो, अपने इष्टदेव का स्मरण करते हुए.  कहीं गिरे तो  फिर - जय सियाराम. इतना सब कुछ यदि आपने सफलता पूर्वक कर लिया तो समझो , आप जैतपुर आ पहुँचे हैं.       
                                                                       आज़ादी के बाद विकास के नाम पर नेताओं व अधिकारियों द्वारा सरकारी पैसे की जो लूट-खसोट हुई है, वह प्रामाणिक रूप में जैतपुर में मौजूद है.  बिजली के पोल जहाँ-तहाँ गड़े हैं जिन पर कोई तार नहीं लगा है. ट्रांसफार्मर का भी कोई पता नहीं हैं. मिट्टी के तेल से जलनेवाली काँच की बोतलों की कुप्पी से रात के अंधेरे का सामना करते हैं ज़्यादातर जैतपुर वाले. टेलीफ़ोन के खंभे भी गाड़े गये हैं जैतपुर में. पर किसी घर से टेलिफोन की घंटी बजती नहीं सुनाई पड़ती. सूचना क्रांति का सशक्त प्रतीक मोबाइल सेट घर-घर में  ज़रूर जगह बना चुका है. निजी मोबाइल कंपनियों के कई एक टावर खड़े हो गये हैं बगल के कस्बे में. सड़क के नाम पर कोलतार में लिपटे पत्थरों का मलबा जहाँ-तहाँ बिखड़ा पड़ा है. पता ही नहीं चलता सड़क में गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़क. हर तीन- चार सालों में सड़क बनाई जाती है जैतपुर में. पर , पहली बारिश में ही धूल जाती हैं ये. लोंगों का कोई भला नहीं हो पता. हां , अलबत्ता ठिकदारों, इंजिनियर, बी. डी. ओ.इन लोगों का विकास बदस्तूर साल दर साल जारी रहता है.  

                           सरकार ने जनता की भलाई के लिए एक ग्रामीण बॅंक भी खुलवाया है जैतपुर में. बैंक मुखियाज़ी के घर में अवस्थित है. मुखियाज़ी की मुखियागिरी गाँव के अलावा बैंक में भी चलती है. लोग अपनी गाढ़ी कमाई के दो-चार पैसे जोड़कर बैंक में जमा करते हैं. मुखिया जी के इशारे पर चुनिंदा लोंगों को ऋण सुविधा भी बैंक मुहैया करवाती है. बैंक में एक मैनेजर साहब हैं, एक कॅशियर बाबू हैं और एक कैंटीन बॉय भी. मैनेजर साहब और कॅशियर बाबू मुखिया जी के ही घर में रहते हैं पेइंग गेस्ट के तौर पर. ज़रा रुकिये, पेइंग गेस्ट कहना सही नहीं होगा, एक दूसरे किस्म का एक समीकरण है जिसके तहत मैनेजर साहब और कॅशियर बाबू दोनों का रहने -खाने का इंतज़ाम मुखिया जी सप्ताह के साढ़े पाँच दिन करते हैं. डेढ़ दिन मैनेजर साहब और कॅशियर बाबू अपनी मिहनत की कमाई खाते होंगे. ऐसे यह  हिसाब भी पक्के तौर पर सही नहीं है. क्योंकि, महीने के बहुत सारे दिन या तो मैनेजर साहब या कॅशियर बाबू दोनों में से कोई एक ही बैंक की शोभा बढ़ाते हैं. 
                                          यह कहानी है महीने की पहले तारीख की. इस दिन बैंक में काफ़ी गहमागहमी रहती है. पेंसनरओं की अच्छी-ख़ासी भीड़ बैंक में हो जाती है. आम तौर पर दिन भर गिने-चुने ग्राहकों को निपटने वाले बेंकर बाबू लोगों को इस दिन कुछ ज़्यादा मशक्कत करनी पड़ती है. बूढ़े-बुढ़ियों और उनके साथ आए बच्चों के चिल्ल-पों से पूरा वातावरण गुलजार हो उठता है.लोग-बाग भाग -भाग कर टिप्पा लेने जाते हैं मॅनेजर साहब के पास, फिर कॅशियर बाबू के आगे लाइन में खड़े होकर पेंशन की रकम लेने के लिए अपनी बरी का इंतजार करते हैं. पेंशन की रकम लेकर जब कोई व्यक्ति निकलता है तो उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत होता है मानो उसने कोई जंग जीत ली हो. दिन भर की गहमागहमी के बाद, जब कॅशियर बाबू अपना हिसाब मिलने बैठे तो पता चला पाँच हज़ार रुपये घाट रहे हैं.  यानी की भीड़-भाड़ में पाँच हज़ार रुपये किसी को ज़्यादा चले गयेंऐनेजर साहब आए कॅशियर बाबू की मदद मेइन.कफि दिमाग़ भिड़ाया,मगजपच्ची की, बैंक की पोथियों , सारे पर्चियों को देखा-परखा. परंतु ज़्यादा रकम किसे मिली, कुछ पता नहीं चल सका. मजबूरन, कॅशियर बाबू को अपने खाते से पाँच हज़ार रुपये की निकासी कर हिसाब मिलाना पड़ा. 
                               रात को कॅशियर बाबू को अपने कमरे में नींद नहीं आ रही है. दिन भर लोग मेहनत करते हैं कुछ कमाने के लिए. वह भी अपना घर -परिवार छोड़ कुछ कमाने के लिए यहाँ आए हैं. पर ....यह क्या? पाँच हज़ार रुपये का धर्मदण्ड!सोचते-सोचते उनका ध्यान टिका शंभू मंडल पर. पाँच हज़ार रुपये का भुगतान उसे करना था. शायद उसे ग़लती से दो बार भुगतान हो गया. क्योंकि पाँच हज़ार की राशि का भुगतान किसी और को उस दिन नहीं किया गया था. कॅशियर बाबू ने उचटी नींदों वाली अपनी रात जैसे-तैसे काटी. अलस्सुबह मुखिया जी के कारिंदों  से शंभू मंडल का  पता ढूँढ निकाला. शंभू मंडल जैतपुर का ही निकला. मुखिया जी के शोहदों ने बताया शंभू मंडल मंतरिया है. किसी भी तरह की चोरी-चमारी के मामले में वह चोरों के नाम अपनी मंत्र विद्या से बता देता है.  कॅशियर बाबू चल पड़े गाँव की ओर. वह मन ही मन कुछ सोच रहे थे. जो चोरों को अपने मंतर के ज़ोर से पकड़वाता है , वह अपनी चोरी कबूलने से रहा. इसके लिए कोई और जुगत लगानी पड़ेगी. इसी उधेड़बुन में वह शंभू मंडल के घर तक आ पहुँचे. शंभू मंडल के खपरैल घर का दरवाजा बंद था. कॅशियर बाबू ने बाहर की छिटकनी को ज़ोर-ज़ोर से बजाया. दरवाजा आधा खुला, शंभू मंडल की पत्नी ने सूचना दी कि मंतरिया जी थोड़ी देर में लौटेंगे. वह सूचना देकर अंदर चली गयी और लकड़ी की एक टूटी हुई कुर्सी अपने बेटे से बाहर भिजवाया. कॅशियर बाबू ने अनमने ढंग से  आसन ग्रहण किया और मंतरिया जी की प्रतीक्षा करने लगे. आस-पास के बच्चे एक लकदक अजनबी को देखकर वहाँ जमा होने लगे. थोड़ी ही देर में शंभू मंडल लौटकर आ गये. शंभू मंडल..ठिगना कद, उभरा हुआ पेट,स्याह कला रंग, तीन चोथाई चमन उजड़ा हुआ. कॅशियर बाबू उसे देखकर थोड़ा विस्मित हुये.शम्भु ने कॅशियर बाबू को पहचान लिया. उसने अदब से उन्हें प्रणाम किया और अपने बेटे को पानी और चाय लाने को कहा. कॅशियर बाबू ने  इस छोटी सी औपचारिकता के बाद धीर गंभीर वाणी में अपने आने का मकसद बताना प्रारंभ किया.
                                                         शंभू मंडल की मुद्रा भी गंभीर और अर्थपूर्ण होती चली   गयी.फिर उसने कॅशियर बाबू को आश्वस्त किया - आप मेरी मंत्र-साधना के लिए थोड़ी सामग्रियों का प्रबंध कर दें. जिसने आपसे ज़्यादा रकम ली, उसका नाम मैं अपनी तंत्र विद्या के ज़रिए  गाँव वालों के सामने उजागर कर  दूँगा.  और फिर उसने कागज का एक पुर्जा कॅशियर बाबू को थमाया. कॅशियर बाबू पढ़ने लगे- खस्सी -१, अरवा चावल- ५ किलोग्राम, घी- सवा किलोग्राम, जौ-ढाई किलोग्राम, सरसों- ढाई किलोग्राम  बताशा-एक किलोग्राम,  लड्डू- एक किलोग्राम, धूप-आधा किलोग्राम, अगरबत्ती- २ पैकेट आदि आदि. कॅशियर बाबू सोचने लगे- साले ने देवी-देवता के पूजा के बहाने अपनी पेट-पूजा का बढ़िया जुगाड़ लगा लिया. फिर हिसाब लगाकर बोले- एक हज़ार एक से कम चला लीजिए मंतरिया जी. संभू मंडल की आँखों में दुनियादारी की चमक थी. उसने कहा- अब इतनी मँहगाई में एक हज़ार एक से क्या होता है , सर. कॅशियर बाबू ने मन ही मन सोचा-मंहगाई सिर्फ़ हिन्दुस्तान में  ही नहीं स्वर्ग में भी बढ़ रही है. प्रकट्तः कुछ और ना बोलकर जेब से कुछ हरे नोट निकालकर शंभू मंडल के हाथ में थमाया. और नज़रों ही नज़र में उसे अपने होठों को अब और कष्ट नहीं देने का इशारा किया. दोनों ने फिर कुछ और बातें की तथा आयोजन स्थल, तिथि और अन्य ज़रूरी उपस्करों के बारे में सहमति हुई. अगले रविवार का दिन नियत हुआ. मैनेजर साहब से भी गुज़ारिश की गई की वे रविवार को यहीं रुक जायें. न चाहते हुए भी मॅनेजर साहब को हामी भरनी पड़ी...     
                      दो दिनों बाद रविवार आ गया. गाँव का सामुदायिक भवन इस तरह के आयोजनों के लिए उपयुक्त माना जाता था. मुखिया जी आए, गाँव के सम्मानीय लोग आए,मैनेजर साहब आए और तमाशबीणों की तो कोई कमी ही नहीं थी. गोयठे जल रहे थे और उस पर धूप और सरसों को जलाया जा रहा था. अगरबत्तियों और घी से सने धूप की गंध अवसर को धार्मिक स्वरूप प्रदान कर रहा था. पास ही खूँटे से बँधा मेमना ज़ोर-ज़ोर से मेमिया रहा था. बेचारा इंसानों की इस जमघट में अपनी उपयोगिता को लेकर शंका से भरा हुआ था. तभी, शंभू मंडल ने  अबूझ शब्दों का उच्चारण प्रारंभ किया. माहौल भक्तिमय हो गया. औरतें हाथ जोड़कर कभी अपनी आँखे मूंद लेती तो कभी अधखुली अचरज भरी आँखों से शंभू मंडल को देखतीं. शंभू मंडल ने एक टिन का लोटा उठाया और एक छड़ी निकली. फिर लोटे को औंधे मुख छड़ी पर रखकर घूमना शुरू किया. मैनेजर साहब विस्मित मुख से सब कुछ देख रहे थे. शंभू मंडल माथे पर बड़ा सा लाल तिलक लगाए, गले में पीला जनेऊ पहने नंगे बदन हा-हू करता अत्यंत भयावह लग रहा था. उसने कॅशियर बाबू को अपने पास बुलाया और कहा सर,आप उन दस व्यक्तियों के नाम कागज के पुर्जों पर अलग-अलग लिख कर दीजिए. कॅशियर बाबू ने स्मित मुख से अपना जेब टटोला. फिर थोड़ा एकांत में हटकर मंतरिया जी के कहे अनुसार पुर्ज़े पर संदेहास्पद लोगों के नाम लिखना प्रारंभ किया. इधर शंभू मंडल और ज़ोर-शोर से डंडे में लोटे को घुमाए जा रहा था. और साथ ही किसी अज्ञात भाषा के ग़ूढ शब्दों का ज़ोर-ज़ोर से उच्चार जारी रखा हुआ था. मैनेजर साहब सोच रहे थे- कहाँ आ फँसा. बेचारा मेमना भी शायद यही सोच रहा था. गाँव के लोग अगाध श्रद्धा से भरे हुए थे. कॅशियर बाबू की बाँछे खिली हुई थी. उसने संदेहों से भारी हुई पूर्जियाँ शंभू मंडल को थमा दी. शंभू मंडल अपने माथे को आड़े-तिरछे झटका देता हुआ लगभग पूरे शरीर को  एक लयात्मक मुद्रा में इधर-उधर घूमा रहा था. उसने बची-खुचि सारी हवन सामग्री को आग में झोंक दिया. फिर उसने जनसमूह  के समक्ष उद्घोषणा किया- इन सारे पुर्जों में से कॅशियर बाबू एक-एक कर पुर्ज़े हटाते जाएँगे. नौ पुर्ज़े हटाए जाने के बाद अंतिम पुर्ज़े पर जिस व्यक्ति का नाम लिखा हुआ होगा, कॅशियर बाबू का पाँच हज़ार उसी ने लिया है.  लोग कौतूहल से मंतरिया जी की ओए देखने लगे.  सभा निस्तब्ध थी. लेकिन वहीं पास में आराम से पसरे कुत्ते को यह खामोशी गवारा नहीं हुआ. उसने ज़ोर से भौक लगाई-भौं-भौं. बेचारा मेमना में-में करता हुआ रस्सी  तोड़ने के लिए पूरा ज़ोर लगाया. लोग-बाग ठठा कर हंस पदे.  चरम पर पहुँची जन-उत्तेजना थोड़ी ढलान पर उतार आई. 
                                              शंभू मंडल ने कासिएर बाबू को इशारा किया. कॅशियर बाबू ने एक-एक कर कुल नौ पुर्जों को हटाकर अपनी जेब की गहराई में सुरक्षित कर लिया. दसवाँ पुर्जा उठाने की बारी मंतरिया जी की थी. लोंगों की आँखे फटी जा रही थी.  दैवी न्याय होने वाला था. शंभू मंडल ने पूरे विश्वास के साथ मुड़े हुए पुर्ज़े को खोला. उस पर लिखे नाम को पढ़ा. मजबूरी थी , इसे सार्वजनिक भी करना था. उसने अपनी गर्दन नीची कर इसे जनता-जनार्दन को दिखाया. यह क्या?. इसमें तो मंतरिया जी का ही नाम लिखा हुआ था. लोग कानाफुसी करने लगे-इसे कहता हैं दैवीय न्याय.दूध का दूध..पानी का पानी. मुखिया जी अपने आसान से उठे और गंभीर वाणी में गाँव के लोगों को संबोधित किया- भाइयों और बहनों, मंतरिया जी दो दिनों के अंदर कॅशियर बाबू को दो हज़ार रुपया दे देंगे. अब आप लोग अपने घर जाइये.
शंभू मंडल विस्मय में डूबा हुआ था. उसके लिए खुश होने की दो ही वजह बची थी. पाँच किलो चावल की पोटली और खूँटे में बँधा खस्सी. उसने चावल की पोटली कंधे पर उठाया और मेमने के गले में बँधी रस्सी का दूसरा सिरा अपने हाथ में थमा. कॅशियर बाबू थे तो अतिप्रसन्‍न, पर अपने चेहरे पर इस भाव को आने देने से पूरे कौशल से रोके हुए थे. दसवाँ पुर्जा तो मंतरिया जी ही लेकर चले गये थे, परन्तु शेष नौ पुर्ज़े कॅशियर बाबू के जेब में हिफ़ाज़त से थे. अपने कमरे में पहुँच कर कॅशियर बाबू ने सबसे पहले नौ पुर्जों को निकल, फिर मन ही मन हँसे और फिर चिद्दी-चद्ड़ी कर इसे फाड़ डाला. यह बात सिर्फ़ उन तक ही रही की दसों पुर्ज़े पर बेचारे मंतरिया जी शंभू मंडल का ही नाम उन्होने लिखा हुआ था.


पुनश्च,


इस घटना के तकरीबन दस दिन बाद एक बुढ़िया बैंक आकर कॅशियर बाबू से मिली. उसने जानकारी दी की आज ही वह रुपयों वाली अपनी पोटली खोली है. इसमे पंद्रह हज़ार रुपये हैं जबकि बैंक से उसने दस हज़ार रुपये ही निकाले थे. बुढ़िया  ने कॅशियर बाबू को पाँच हज़ार रुपये लौटा दिए.

ब्रजेश
05/05/2012

Wednesday 29 February 2012

बैकुंठ यादव सचेत हो जाओ


मेरे दूर के रिश्ते में आता है बैकुंठ यादव
साला.....
आजकल शहर का प्रतिष्टित आदमी बन गया है.
उसके घर की उँचाई भी उसकी प्रतिष्ठा की तरह,
साल दर साल बढ़ रही है..
साथ ही साथ,
जिस अनुपात में उसकी प्रतिष्ठा और घर की उँचाई बढ़ रही है,
मेरी बस्ती के मजदूरों के झोपडे छोटे होते चले जा रहे है...
मुझे डर लगता है उस दिन का ख्याल करके,
जब यों ही होते-होते,
एक दिन झोपडे अपना अस्तित्व खो बैठेंगें.
लेकिन, ऐसा कभी हुआ नही है.
इसलिए,
बैकुंठ यादव सचेत हो जाओ,
अपने पेट की पाचन-शक्ति घटाओ,
जिसमें सब कुछ पच जाता है.

ब्रजेश

Tuesday 21 February 2012

ग़ज़ल


गम से भला, कैसा गिला ?
यह तो मोहब्बत का सिला.

जब  राह अपनी एक  है,
हमराह से  क्यों, फासला ?

हम  हुए बेघर  तो  क्या!
उनको तो अपना, घर मिला.

शाम-ए-गम, तेरा तसव्वुर,
ख़त्म   ना हो सिलसिला.

अपनी तबाही  पर हँसी !
है  बात कितनी संजीदा ?


ब्रजेश
16/12/1991

समय का दरिया


समय का दरिया बहा ले जा रहा है मुझको,
दूर, तुमसे दूर, बहुत दूर......
मैं शब्दों के सेतु बांधता रहता हूँ,
तुम तक लौट आने का यत्न करता रहता हूँ.
अनवरत...अविकल....
दरिया के थपेड़े हर पल मेरी राह रोकते हैं,
और मैं अपनी हर उखड़ती साँसों के साथ,
एक कोशिश और करता हूँ,
तुम तक लौट आने की.

कभी-कभी सोचता हूँ -
तुम तक पहुँचना अब अभीष्ट नहीं रह गया,
तुम तक पहुँचने की हर कोशिश ही-
मेरी जिंदगी के मायने हैं.

कभी-कभी सोचता हूँ -
मैं भले ही तुम तक नहीं पहुँच पाऊँ,
परंतु, एक ना एक दिन,
हवा में उड़ने वाले श्वेत अश्वों से जुड़े सुनहरे रथ पर सवार होकर,
पीले,गुलाबी और धानी रंगों के परिधानो में दमकती हुई,
स्वर्णिम आभा और मनमोहक सुवास बिखराती हुई,
मेरे सम्मुख आ खड़ी होगी,
और कहोगी-
आओ, अब चलें,
और फिर बैठा लोगी मेरा हाथ पकड़कर,
हवा में उड़ने वाले अपने रथ पर.
फिर हम चल पड़ेंगें-
समय से परे...अंतहीन यात्रा पर.
और नीचे, दूर कहीं....
समय का दरिया बहता रह जाएगा.

ब्रजेश
18/02/2012

समय का दरिया


समय का दरिया बहा ले जा रहा है मुझको,
दूर, तुमसे दूर, बहुत दूर......
मैं शब्दों के सेतु बांधता रहता हूँ,
तुम तक लौट आने का यत्न करता रहता हूँ.
अनवरत...अविकल....
दरिया के थपेड़े हर पल मेरी राह रोकते हैं,
और मैं अपनी हर उखड़ती साँसों के साथ,
एक कोशिश और करता हूँ,
तुम तक लौट आने की.

कभी-कभी सोचता हूँ -
तुम तक पहुँचना अब अभीष्ट नहीं रह गया,
तुम तक पहुँचने की हर कोशिश ही-
मेरी जिंदगी के मायने हैं.

कभी-कभी सोचता हूँ -
मैं भले ही तुम तक नहीं पहुँच पाऊँ,
परंतु, एक ना एक दिन,
हवा में उड़ने वाले श्वेत अश्वों से जुड़े सुनहरे रथ पर सवार होकर,
पीले,गुलाबी और धानी रंगों के परिधानो में दमकती हुई,
स्वर्णिम आभा और मनमोहक सुवास बिखराती हुई,
मेरे सम्मुख आ खड़ी होगी,
और कहोगी-
आओ, अब चलें,
और फिर बैठा लोगी मेरा हाथ पकड़कर,
हवा में उड़ने वाले अपने रथ पर.
फिर हम चल पड़ेंगें-
समय से परे...अंतहीन यात्रा पर.
और नीचे, दूर कहीं....
समय का दरिया बहता रह जाएगा.

ब्रजेश
18/02/2012

Friday 17 February 2012

ग़ज़ल


तेरे दिल तक मेरे दिल की बात पहुँचे,
कुछ जबाबात पहुँचे,कुछ सवालात पहुँचे.
तेरे हिज्र में बहुत रूलाती हैं रातें,
मेरे आसुओं से भींगी बरसात पहुँचे.
नाम तेरा ज़ुबाँ पर,नज़र में तस्वीर तेरी,
मेरा अक्स तुम तक पहुँचे,मेरे हालात पहुँचे.
तेरे बगैर जीने का रहा ना कोई मतलब,
मेरी बेबसी पहुँचे,मेरे ख्यालात पहुँचे.
चलो आसमाँ के पार भी है जहाँ कोई,
हम पहुँचे,तुम पहुँचो,तारों की बारात पहुँचे.

ब्रजेश
08/07/2004

Thursday 16 February 2012

मूर्तिकार

मूर्तिकार,
(जादूगर)
तुम्हारी उंगलियों के जादू से,
हम बेजान पत्थर सप्राण हो गये.
किसी के देवता,किसी के भगवान हो गये.
यह तुमने क्या किया?
जन-आस्था के कारा में -
हमें क़ैद कर दिया.
आस्था या अपेक्षा!
तुम ही कहो मूर्तिकार ?
हम पत्थर!
तुम लोंगो की बात क्या समझें? क्या जानें?
हम पत्थर,
भला कैसे उतर सकते हैं खरे?
नहीं उतर सकते हैं खरे,
रोंगटे खड़े करने वाली-
तुम्हारी अपेक्षाओं की कसौटी पर.
मेरे रचनाकार,
हम नहीं चाहते देवता होना,
हमें मत दो ईश्वरीय स्वरूप,
हमें नहीं चाहिए बेलपत्र,अगरु-धूप,
या किसी की आस्था-अनास्था.
हमें चाहिए तो बस-
तुम्हारी उंगलियों का जादुई संस्पर्श.
तुम चिर कल तक बस गढ़ते रहो हमें.
तुम हासिल करो सृजना का सुख,
और हमें दो,
अपने सृजक का,
जीवन दायी साहचर्य.

ब्रजेश
26/11/1997

तुम्हारे लिए

जब भी, जहाँ भी ढूँढा है,
मैने तुम्हें पाया है.
तुम्हारे पलकों की छाया महसूस की है,
जेठ की तपती दुपहरियों में,
कोलतार के सड़क जब पिघल रहे होते हैं,
पैदल चलते मेरे पावं फँस रहे होते हैं.

कुहासों भरी सर्दी की रातों में,
मन भी जब हो जाता है-
झील की ठहरी हुई पानी की तरह.
बर्फ़ीली हवा दौड़ती है काट खाने को,
जमने-जमने को होता है देह का लहू,
तुम्हारे होठों की तपिश मुझे जिलाए रखती है.

क्रुद्ध अंतरिक्ष जब गरज रहा होता है,
धरती पर अन थक बरस रहा होता है.
प्रलय की आशंका कंपा जाती है मन को,
तब सुनता हूँ, बरामदे में-
तुम्हारे पायलों की रुनझुन.
आश्वस्त होता हूँ-
बारिश अब थमने ही वाली है.

चूक जाती है जब सारी उर्जा,
हो जाता हूँ मैं उद्धत,
पराजय बोध को देने को अपनी सहमति.
तब महसूस करता हूँ,
तुम्हारी हथेलियों का स्नेहिल स्पर्श,
अपने कंधों पर.
तुम्हारी उंगलियों का उष्ण दबाब,
अपने माथे पर.
तुम्हारी सांसो की खुशबू,
अपनी सांसो में.
मैं गहरा श्वास भरता हूँ-
और फिर चल पड़ता हूँ,
अन थक यात्रा पर,
अपनी छाती कुछ और चौड़ी किए हुए.

ब्रजेश
28/01/1999

Wednesday 15 February 2012

अंतर्धान

फेसबुक पर मेरी पहली कविता का स्वागत करें...

मेरे जनक और जननी की पुण्य स्मृति को समर्पित-





जिनकी उंगलियों को पकड़ कर मैने चलना सीखा,
वे अंतर्धान हो गये.
शायद उन्हें भ्रम हो गया था कि-
मैने अब चलना सीख लिया है.
मैं अपनी उन उंगलियों को देखता हूँ,परखता हूँ,
जिन्हें पकड़कर मेरे बच्चे चलना सीख रहे हैं.
और फिर सोचता हूँ,
ये जल्दी चलना सीख लें.
एक दिन मुझे भी अंतर्धान हो जाना है.

ब्रजेश
04/11/2006