Wednesday 29 February 2012

बैकुंठ यादव सचेत हो जाओ


मेरे दूर के रिश्ते में आता है बैकुंठ यादव
साला.....
आजकल शहर का प्रतिष्टित आदमी बन गया है.
उसके घर की उँचाई भी उसकी प्रतिष्ठा की तरह,
साल दर साल बढ़ रही है..
साथ ही साथ,
जिस अनुपात में उसकी प्रतिष्ठा और घर की उँचाई बढ़ रही है,
मेरी बस्ती के मजदूरों के झोपडे छोटे होते चले जा रहे है...
मुझे डर लगता है उस दिन का ख्याल करके,
जब यों ही होते-होते,
एक दिन झोपडे अपना अस्तित्व खो बैठेंगें.
लेकिन, ऐसा कभी हुआ नही है.
इसलिए,
बैकुंठ यादव सचेत हो जाओ,
अपने पेट की पाचन-शक्ति घटाओ,
जिसमें सब कुछ पच जाता है.

ब्रजेश

Tuesday 21 February 2012

ग़ज़ल


गम से भला, कैसा गिला ?
यह तो मोहब्बत का सिला.

जब  राह अपनी एक  है,
हमराह से  क्यों, फासला ?

हम  हुए बेघर  तो  क्या!
उनको तो अपना, घर मिला.

शाम-ए-गम, तेरा तसव्वुर,
ख़त्म   ना हो सिलसिला.

अपनी तबाही  पर हँसी !
है  बात कितनी संजीदा ?


ब्रजेश
16/12/1991

समय का दरिया


समय का दरिया बहा ले जा रहा है मुझको,
दूर, तुमसे दूर, बहुत दूर......
मैं शब्दों के सेतु बांधता रहता हूँ,
तुम तक लौट आने का यत्न करता रहता हूँ.
अनवरत...अविकल....
दरिया के थपेड़े हर पल मेरी राह रोकते हैं,
और मैं अपनी हर उखड़ती साँसों के साथ,
एक कोशिश और करता हूँ,
तुम तक लौट आने की.

कभी-कभी सोचता हूँ -
तुम तक पहुँचना अब अभीष्ट नहीं रह गया,
तुम तक पहुँचने की हर कोशिश ही-
मेरी जिंदगी के मायने हैं.

कभी-कभी सोचता हूँ -
मैं भले ही तुम तक नहीं पहुँच पाऊँ,
परंतु, एक ना एक दिन,
हवा में उड़ने वाले श्वेत अश्वों से जुड़े सुनहरे रथ पर सवार होकर,
पीले,गुलाबी और धानी रंगों के परिधानो में दमकती हुई,
स्वर्णिम आभा और मनमोहक सुवास बिखराती हुई,
मेरे सम्मुख आ खड़ी होगी,
और कहोगी-
आओ, अब चलें,
और फिर बैठा लोगी मेरा हाथ पकड़कर,
हवा में उड़ने वाले अपने रथ पर.
फिर हम चल पड़ेंगें-
समय से परे...अंतहीन यात्रा पर.
और नीचे, दूर कहीं....
समय का दरिया बहता रह जाएगा.

ब्रजेश
18/02/2012

समय का दरिया


समय का दरिया बहा ले जा रहा है मुझको,
दूर, तुमसे दूर, बहुत दूर......
मैं शब्दों के सेतु बांधता रहता हूँ,
तुम तक लौट आने का यत्न करता रहता हूँ.
अनवरत...अविकल....
दरिया के थपेड़े हर पल मेरी राह रोकते हैं,
और मैं अपनी हर उखड़ती साँसों के साथ,
एक कोशिश और करता हूँ,
तुम तक लौट आने की.

कभी-कभी सोचता हूँ -
तुम तक पहुँचना अब अभीष्ट नहीं रह गया,
तुम तक पहुँचने की हर कोशिश ही-
मेरी जिंदगी के मायने हैं.

कभी-कभी सोचता हूँ -
मैं भले ही तुम तक नहीं पहुँच पाऊँ,
परंतु, एक ना एक दिन,
हवा में उड़ने वाले श्वेत अश्वों से जुड़े सुनहरे रथ पर सवार होकर,
पीले,गुलाबी और धानी रंगों के परिधानो में दमकती हुई,
स्वर्णिम आभा और मनमोहक सुवास बिखराती हुई,
मेरे सम्मुख आ खड़ी होगी,
और कहोगी-
आओ, अब चलें,
और फिर बैठा लोगी मेरा हाथ पकड़कर,
हवा में उड़ने वाले अपने रथ पर.
फिर हम चल पड़ेंगें-
समय से परे...अंतहीन यात्रा पर.
और नीचे, दूर कहीं....
समय का दरिया बहता रह जाएगा.

ब्रजेश
18/02/2012

Friday 17 February 2012

ग़ज़ल


तेरे दिल तक मेरे दिल की बात पहुँचे,
कुछ जबाबात पहुँचे,कुछ सवालात पहुँचे.
तेरे हिज्र में बहुत रूलाती हैं रातें,
मेरे आसुओं से भींगी बरसात पहुँचे.
नाम तेरा ज़ुबाँ पर,नज़र में तस्वीर तेरी,
मेरा अक्स तुम तक पहुँचे,मेरे हालात पहुँचे.
तेरे बगैर जीने का रहा ना कोई मतलब,
मेरी बेबसी पहुँचे,मेरे ख्यालात पहुँचे.
चलो आसमाँ के पार भी है जहाँ कोई,
हम पहुँचे,तुम पहुँचो,तारों की बारात पहुँचे.

ब्रजेश
08/07/2004

Thursday 16 February 2012

मूर्तिकार

मूर्तिकार,
(जादूगर)
तुम्हारी उंगलियों के जादू से,
हम बेजान पत्थर सप्राण हो गये.
किसी के देवता,किसी के भगवान हो गये.
यह तुमने क्या किया?
जन-आस्था के कारा में -
हमें क़ैद कर दिया.
आस्था या अपेक्षा!
तुम ही कहो मूर्तिकार ?
हम पत्थर!
तुम लोंगो की बात क्या समझें? क्या जानें?
हम पत्थर,
भला कैसे उतर सकते हैं खरे?
नहीं उतर सकते हैं खरे,
रोंगटे खड़े करने वाली-
तुम्हारी अपेक्षाओं की कसौटी पर.
मेरे रचनाकार,
हम नहीं चाहते देवता होना,
हमें मत दो ईश्वरीय स्वरूप,
हमें नहीं चाहिए बेलपत्र,अगरु-धूप,
या किसी की आस्था-अनास्था.
हमें चाहिए तो बस-
तुम्हारी उंगलियों का जादुई संस्पर्श.
तुम चिर कल तक बस गढ़ते रहो हमें.
तुम हासिल करो सृजना का सुख,
और हमें दो,
अपने सृजक का,
जीवन दायी साहचर्य.

ब्रजेश
26/11/1997

तुम्हारे लिए

जब भी, जहाँ भी ढूँढा है,
मैने तुम्हें पाया है.
तुम्हारे पलकों की छाया महसूस की है,
जेठ की तपती दुपहरियों में,
कोलतार के सड़क जब पिघल रहे होते हैं,
पैदल चलते मेरे पावं फँस रहे होते हैं.

कुहासों भरी सर्दी की रातों में,
मन भी जब हो जाता है-
झील की ठहरी हुई पानी की तरह.
बर्फ़ीली हवा दौड़ती है काट खाने को,
जमने-जमने को होता है देह का लहू,
तुम्हारे होठों की तपिश मुझे जिलाए रखती है.

क्रुद्ध अंतरिक्ष जब गरज रहा होता है,
धरती पर अन थक बरस रहा होता है.
प्रलय की आशंका कंपा जाती है मन को,
तब सुनता हूँ, बरामदे में-
तुम्हारे पायलों की रुनझुन.
आश्वस्त होता हूँ-
बारिश अब थमने ही वाली है.

चूक जाती है जब सारी उर्जा,
हो जाता हूँ मैं उद्धत,
पराजय बोध को देने को अपनी सहमति.
तब महसूस करता हूँ,
तुम्हारी हथेलियों का स्नेहिल स्पर्श,
अपने कंधों पर.
तुम्हारी उंगलियों का उष्ण दबाब,
अपने माथे पर.
तुम्हारी सांसो की खुशबू,
अपनी सांसो में.
मैं गहरा श्वास भरता हूँ-
और फिर चल पड़ता हूँ,
अन थक यात्रा पर,
अपनी छाती कुछ और चौड़ी किए हुए.

ब्रजेश
28/01/1999

Wednesday 15 February 2012

अंतर्धान

फेसबुक पर मेरी पहली कविता का स्वागत करें...

मेरे जनक और जननी की पुण्य स्मृति को समर्पित-





जिनकी उंगलियों को पकड़ कर मैने चलना सीखा,
वे अंतर्धान हो गये.
शायद उन्हें भ्रम हो गया था कि-
मैने अब चलना सीख लिया है.
मैं अपनी उन उंगलियों को देखता हूँ,परखता हूँ,
जिन्हें पकड़कर मेरे बच्चे चलना सीख रहे हैं.
और फिर सोचता हूँ,
ये जल्दी चलना सीख लें.
एक दिन मुझे भी अंतर्धान हो जाना है.

ब्रजेश
04/11/2006