तुम ठहरे सूरज,
प्रदीप्त, प्रकाशपुँज,
उजास से भरे.
मैं हूँ धरा,
स्याह अंधेरा.
रोशनी की सतत तलाश में रहता हूँ ,
अथक-अनवरत,
तुम्हारी चतुर्दिक परिक्रमा करता हूँ.
शीत-ताप सहता हूँ,
कितने मौसमों को जीता हूँ.
तुम ठहरे सूरज,
स्थिर, अविचल
मैं धरा हूँ-
बेबस, विकल.
ब्रजेश
१९/०५/२०१५
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