Friday, 13 July 2012

अर्थवत्ता

मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम कि-
क्या शब्द समय के साथ अपनी अर्थवत्ता खोते चले जाते हैं?
या फिर ,समय के साथ
कुछ शब्द हमारे लिए बेगाने होते चले जाते हैं.
या फिर समय,
कुछ शब्दों को सौंप देता है आनेवाली नई नस्ल को.
एक खास मकसद से.

ब्रजेश
१०/०५/२०१२

उधेड़बुन

बहुत सारी कहावतें, मुहावरे,सूक्तियाँ और सुभाषित वाणीयाँ कही जाती हैं-
जब भी कदम डगमगाते हैं,
जिंदगी के आड़े-तिरछे रास्ते नापते हुए.
मैं उधेड़बुन में पड़ जाता हूँ-
क्या इन कहावतों-मुहावरों, सुक्तियों-सुभाषित वाणीयों का,
एक समुच्चय बनाऊँ,
और, इन्हें LHS की ओर रखूं,
और, फिर अपनी जिंदगी को RHS की ओर.
और, तमाम उम्र LHS-RHS को साधता रहूँ....
फिर इसी कशमकश में जिंदगी के रास्ते ही ख़त्म हो जायें !
या यूँ ही चलता रहूँ,
चलने का उत्सव मनाते हुए,
यात्रा में मिलने वाले-
चोटों को सहलाते हुए,
ज़ख़्मों की पीड़ा बिसराते हुए.
(थकने जैसी तो कोई बात ही नहीं है.)
बस , चलता रहूं...
दीवानावार.

ब्रजेश
22/02/2012

मैं आदतन मुस्कुराता रहता हूँ.

मैं आदतन मुस्कुराता रहता हूँ.
दिल के दाग छिपाता रहता हूँ.
परन्तु, अक्सर मेरी चोरी पकड़ी जाती है.
मेरे माथे पर कुछ ,
अनलिखी इबारत उभर आती है.
जिसे पढ़ने में कोई चूक नहीं करते मेरे बच्चे
और मेरी अर्धांगिनी.
मुझे इसका अहसास तब होता है,
जब,
मेरा बेटा मेरी बिखरी चीज़ों को सहेजता है,
दफ़्तर के लिए निकलने से पहले.
बार-बार पूछता है-
पापा, तुम कब तक लौतोगे?
बेटी बिना कुछ बोले,
मेरी पीठ पर चढ़कर,
मेरे गालों को चूमती है.
और,
मेरी धर्मपत्नी,
मेरी महिला मित्रों को लेकर ताने मारना,
एकदम से बंद कर देती है.

ब्रजेश
22/02/2012

रंग...

रंग...
रंग उन्माद के,
रंग...
रंग दहशत के,
रंग...
रंग अविश्वास के,
अलग अलग रंगों से सराबोर लोग,
अलग-अलग रंगों के झंडे ढो रहे लोग,
उबलते हुए रंग,
रंग
हरा रंग, नीला रंग, लाल रंग, गहरा लाल रंग, केसरिया रंग...
हर किसी ने एक रंग का अपने लिए वरण कर लिया है..
मुझे नहीं रंगना एकाकी रंग से...
मैं इंद्रधनुष के सपने देखता हूँ...
सारे रंग अपने पूरे अस्तित्व के साथ
साथ खड़े..
एक-दूसरे की गलबाहियाँ करते.

ब्रजेश
29/05/2012