Friday, 26 October 2012

जब भी घर से बाहर निकलता हूँ



जब भी घर से बाहर निकलता हूँ,
घर की एक मुठ्ठी हवा साथ ले लेता हूँ.
कौन जाने बाहर की हवा का मिज़ाज कब बदल जाए?
कितना सुकून महसूस होता है!
जो संग घर की हवा रहती है.
इस हवा में घुली है-
माँ के बनाए पराठो की गंध,
छोटे- भाई बहनों की हँसी,
पिताजी के उपदेश,
जो कभी-कभी कितने बोर करने वाले होते हैं?
पर!
किसी अपरिचित, अजनबी जगह में,
कितना महत्वपूर्ण होता है वो गंध, हँसी?
और, पिताजी के उपदेश.
मुझसे पूछो?
इसीलिए तो एक मुठ्ठी हवा साथ ले लेता हूँ,
जब भी घर से बाहर निकलता हूँ.

ब्रजेश

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