सूरज जब थक चुका होता है,
दिखाकर अपना सारा जादू-
और,किरणों के जाल की पोटली बाँध,
अपने कंधों पर लेता है टांग.
फिर,हाथें हिलाता,
वापस लौटने के लिए हो जाता है अधीर.
मेरे छोटे-से शहर की छतों पर,
उग आते हैं लोग.
और हवाओं में तैरने लगती हैं-
ढेर सारी उम्मीदें,ख्वाहिशें और कनफ़ुसियां.
दिखाकर अपना सारा जादू-
और,किरणों के जाल की पोटली बाँध,
अपने कंधों पर लेता है टांग.
फिर,हाथें हिलाता,
वापस लौटने के लिए हो जाता है अधीर.
मेरे छोटे-से शहर की छतों पर,
उग आते हैं लोग.
और हवाओं में तैरने लगती हैं-
ढेर सारी उम्मीदें,ख्वाहिशें और कनफ़ुसियां.
मेरी आँखें जा टिकती हैं-
एक जर्जर इमारत पर.
जिसकी छत पर सजती हैं रोजाना,
शून्य में निहारती एक जोड़ी आँखें.
इमारत का दरवाज़ा अक्सर खामोश रहता है.
उसे पता है बहुत ही कम आगंतुक हैं इस घर में.
घर के मालिक ने कुछ अरसे पहले अपनी इहलीला पूरी कर ली है.
और कहीं गुम हो गया है सितारों के बीच.
जिसे ढूढ़ने का प्रयत्न करती हैं रोजाना,
शून्य में निहारती आँखें.
घर के चिरागों ने रोशन कर रखा है नई-नई इमारतों को,
नई-नई जगहों पर.
मैं अपने घर की छत से उतरता हूँ,
सीढ़ियों पर सधे हुए कदमों के साथ ,
और अपने घर को हसरत से देखता हूँ,
आईने में खुद को परखता हूँ,
फिर अपनी नज़रों को नज़र-भर देखता हूँ.
ब्रजेश
27/08/2012
एक जर्जर इमारत पर.
जिसकी छत पर सजती हैं रोजाना,
शून्य में निहारती एक जोड़ी आँखें.
इमारत का दरवाज़ा अक्सर खामोश रहता है.
उसे पता है बहुत ही कम आगंतुक हैं इस घर में.
घर के मालिक ने कुछ अरसे पहले अपनी इहलीला पूरी कर ली है.
और कहीं गुम हो गया है सितारों के बीच.
जिसे ढूढ़ने का प्रयत्न करती हैं रोजाना,
शून्य में निहारती आँखें.
घर के चिरागों ने रोशन कर रखा है नई-नई इमारतों को,
नई-नई जगहों पर.
मैं अपने घर की छत से उतरता हूँ,
सीढ़ियों पर सधे हुए कदमों के साथ ,
और अपने घर को हसरत से देखता हूँ,
आईने में खुद को परखता हूँ,
फिर अपनी नज़रों को नज़र-भर देखता हूँ.
ब्रजेश
27/08/2012
No comments:
Post a Comment