Friday, 26 October 2012

खिचड़ी, गर्म-गर्म खिचड़ी. मेरी चेतना की थाली में परोसी हुई, उच्छवासें छोड़ रही हैं. प्यारी खिचड़ी , मैं करबद्ध, नतमस्तक तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ. मैं हतप्रभ हूँ की तुम्हारी सादगी ने भला अब तक मेरे मन को क्यों नहीं लुभाया. जबकि, हर सादगी ने मेरे मन को तरंगित किया है. 'शनि' का भय भी मुझे तुम्हारे करीब नहीं ला पाया. क्यों समझता रहा तुझे, रुग्ण लोगों का पथ्य और सज़ायाफ्ता कैदियों की मजबूरी. मैं अकिंचन
 बेमन से ग्रहण करता रहा तुम्हे, अपनी संगिनी की साप्ताहिक छुट्टी के एवज में, एक विवशता भरे विकल्प के रूप में. प्यारी खिचड़ी, तुम्हारा स्वाद / सौंदर्य उद्‍घाटित नहीं हो पाता, यदि पिछले शनिवार को प्रसाद साहब मेरे दफ़्तर नहीं आते. प्रसाद साहब ? मेरी ही कद-काठी के हैं, थोड़े साँवले से और शालीन पुरुषों की उस प्रजाति से हैं, जिनके अवशेष अभी भी यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं.प्रसाद साहब कोई पाँच वर्ष पहले मेरे दफ़्तर से सेवानिवृत हुए हैं. और अब अपने बड़े से घर में अकेले रहते हैं. उनकी सहचरी ने अभी हाल में ही उन्हें आख़िरी बार अलविदा कह दिया. प्रसाद साहब के सारे बच्चे होनहार हैं, और यही वजह है कि वे अपने पिता के बड़े से घर की शोभा नहीं बढ़ाते. प्रसाद साहब बच्चों के साथ रहने को तैयार नहीं हैं. उनकी चिंता है कि वे अगर अपना शहर छोड़ देंगें तो इस विशाल घर का क्या होगा. मैं हंसता हूँ. प्यारी खिचड़ी, कबीर भी हंसते थे. माया महा ठगिनी हम जानी.प्यारी खिचड़ी, मेरे बड़े लाड़ले ने ताबड़तोड़ मेरे मोबाइल पर संदेशों की झड़ी लगा दी. पापा, मम्मी ने खिचड़ी पका लिया है. जल्दी आकर भोग लगाइए. जैसे खिचड़ी , खिचड़ी ना हो, छप्पनभोग हो. मैं चिढ़ रहा था, थोड़ा उसके उतावलेपन पर और ज़्यादा तुम्हारे नामोच्चार से. प्यारी खिचड़ी, मैने जिंदगी में आख़िरी बार तुम्हारे नाम से नाक-भौं सिकोडी. मैने अपने पुत्र - रत्न को थोड़ा सा धैर्य धारण करने को कहा. इस बीच मैने पूरे आदर- भाव से अपने वरिष्ठ प्रसाद साहब से चाय-पान का आग्रह किया. प्रसाद साहब ने पूरी आत्मीयता के साथ मेरे कंधे पर अपनी हथेलियों को रखा, तनिक दबाब डालते हुए. संबंधों की उष्मा मेरे आत्मा तक पहुँच रही थी.'आज छोड़िए, अगले दिन....' प्रसाद साहब ने कहा. फिर कुछ याद दिलाते हुए कहा- आपको तो पता ही होगा,घर पर अकेला रहता हूँ, आज शनिवार है, जाकर खिचड़ी बनानी पड़ेगी, तभी तो खा पाऊँगा. प्यारी खिचड़ी, मेरे जिस कंधे पर प्रसाद साहब ने अपनी हथेली को रखा था, उससे जुड़ा हाथ सुन्न हो गया. प्यारी खिचड़ी, उस क्षण के सत्य के साक्षात्कार से तुम्हारे प्रति मेरी सोच सदा-सर्वदा के लिए बदल गई. मैने तत्क्षण अपनी भार्या को संदेश भेजा- मेरी खिचड़ी की थाली तैयार की जाय. बाबूजी की याद आई, माँ की भी. बाबूजी माँ से कहते थे- खिचड़ी के चार यार, घी पापड़, दही, अचार. खाने की टेबल पर तुम अपने सारे सांगियों के साथ मौजूद थी. प्यारी खिचड़ी, अब तो तुम मेरे मन के एक कोने से दूसरे कोने तक बिछी हुई हो. अपने रसीले विस्तार से लगातार भरमाते हुए.....

ब्रजेश

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