Tuesday, 21 February 2012

ग़ज़ल


गम से भला, कैसा गिला ?
यह तो मोहब्बत का सिला.

जब  राह अपनी एक  है,
हमराह से  क्यों, फासला ?

हम  हुए बेघर  तो  क्या!
उनको तो अपना, घर मिला.

शाम-ए-गम, तेरा तसव्वुर,
ख़त्म   ना हो सिलसिला.

अपनी तबाही  पर हँसी !
है  बात कितनी संजीदा ?


ब्रजेश
16/12/1991

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