Thursday, 16 February 2012

तुम्हारे लिए

जब भी, जहाँ भी ढूँढा है,
मैने तुम्हें पाया है.
तुम्हारे पलकों की छाया महसूस की है,
जेठ की तपती दुपहरियों में,
कोलतार के सड़क जब पिघल रहे होते हैं,
पैदल चलते मेरे पावं फँस रहे होते हैं.

कुहासों भरी सर्दी की रातों में,
मन भी जब हो जाता है-
झील की ठहरी हुई पानी की तरह.
बर्फ़ीली हवा दौड़ती है काट खाने को,
जमने-जमने को होता है देह का लहू,
तुम्हारे होठों की तपिश मुझे जिलाए रखती है.

क्रुद्ध अंतरिक्ष जब गरज रहा होता है,
धरती पर अन थक बरस रहा होता है.
प्रलय की आशंका कंपा जाती है मन को,
तब सुनता हूँ, बरामदे में-
तुम्हारे पायलों की रुनझुन.
आश्वस्त होता हूँ-
बारिश अब थमने ही वाली है.

चूक जाती है जब सारी उर्जा,
हो जाता हूँ मैं उद्धत,
पराजय बोध को देने को अपनी सहमति.
तब महसूस करता हूँ,
तुम्हारी हथेलियों का स्नेहिल स्पर्श,
अपने कंधों पर.
तुम्हारी उंगलियों का उष्ण दबाब,
अपने माथे पर.
तुम्हारी सांसो की खुशबू,
अपनी सांसो में.
मैं गहरा श्वास भरता हूँ-
और फिर चल पड़ता हूँ,
अन थक यात्रा पर,
अपनी छाती कुछ और चौड़ी किए हुए.

ब्रजेश
28/01/1999

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