Thursday 16 February 2012

मूर्तिकार

मूर्तिकार,
(जादूगर)
तुम्हारी उंगलियों के जादू से,
हम बेजान पत्थर सप्राण हो गये.
किसी के देवता,किसी के भगवान हो गये.
यह तुमने क्या किया?
जन-आस्था के कारा में -
हमें क़ैद कर दिया.
आस्था या अपेक्षा!
तुम ही कहो मूर्तिकार ?
हम पत्थर!
तुम लोंगो की बात क्या समझें? क्या जानें?
हम पत्थर,
भला कैसे उतर सकते हैं खरे?
नहीं उतर सकते हैं खरे,
रोंगटे खड़े करने वाली-
तुम्हारी अपेक्षाओं की कसौटी पर.
मेरे रचनाकार,
हम नहीं चाहते देवता होना,
हमें मत दो ईश्वरीय स्वरूप,
हमें नहीं चाहिए बेलपत्र,अगरु-धूप,
या किसी की आस्था-अनास्था.
हमें चाहिए तो बस-
तुम्हारी उंगलियों का जादुई संस्पर्श.
तुम चिर कल तक बस गढ़ते रहो हमें.
तुम हासिल करो सृजना का सुख,
और हमें दो,
अपने सृजक का,
जीवन दायी साहचर्य.

ब्रजेश
26/11/1997

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